Tuesday, April 23, 2019

गठबंधन लंबा चलेगा लेकिन दोनों दलों का विलय कभी नहीं होगा: अखिलेश यादव

समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव का कहना है कि सपा-बसपा-रालोद का गठबंधन हमेशा के लिए हुआ है क्योंकि ये गठबंधन विचारों का संगम है.

लेकिन उनका यह भी कहना है कि बावजूद इसके, इन दलों का विलय कभी नहीं होगा. अखिलेश के मुताबिक़, 'ऐसा इसलिए ताकि दलों के बीच संतुलन बना रहे और रफ़्तार तेज़ रहे.'

सैफ़ई में अपने पैतृक आवास पर बीबीसी के साथ ख़ास बातचीत में उन्होंने समाजवादी पार्टी के गढ़ कहे जाने वाले इलाक़ों में अपने सगे चाचा से मिल रही चुनौती को ख़ारिज करते हुए कहा, "गठबंधन की लड़ाई सिर्फ़ बीजेपी से है, बाक़ी दलों को जनता ख़ुद ही ख़ारिज कर देगी. किसी दूसरी पार्टी से हमें कोई चुनौती नहीं मिल रही है."

अखिलेश यादव के चाचा, पूर्व मंत्री और समाजवादी पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव ने समाजवादी पार्टी से अलग होकर प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया नाम से नई पार्टी बनाई है और उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश में पचास से ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ रही है.

हालांकि पार्टी ने उन सीटों पर अपने उम्मीदवार नहीं खड़े किए हैं जहां यादव परिवार के अहम लोग चुनाव लड़ रहे हैं. लेकिन ख़ुद शिवपाल यादव उस फ़िरोज़ाबाद सीट से चुनाव लड़ रहे हैं जहां से समाजवादी पार्टी के प्रमुख महासचिव प्रोफ़ेसर रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनावी मैदान में हैं. अक्षय यादव फ़िरोज़ाबाद सीट पर निवर्तमान सांसद हैं.

अखिलेश यादव ने शनिवार को फ़िरोज़ाबाद में मायावती के साथ संयुक्त रैली भी की थी और एक दिन पहले मैनपुरी की रैली में मायावती ने अखिलेश का परिचय 'मुलायम सिंह यादव के असली उत्तराधिकारी' के रूप में कराया था.

मैनपुरी में गठबंधन की रैली के दौरान मुलायम सिंह यादव और मायावती का एक मंच पर आना लोगों को हैरान करने वाला था क्योंकि दोनों के बीच पिछले 24 साल से राजनीतिक दुश्मनी के साथ-साथ व्यक्तिगत दुश्मनी भी थी.

अखिलेश यादव कहते हैं, "दोनों को एक साथ लाने में मेहनत तो ज़रूर करनी पड़ी लेकिन नेताजी का आशीर्वाद इस गठबंधन के लिए इसलिए भी है क्योंकि वो जानते हैं कि देश में और प्रदेश में इसकी कितनी ज़रूरत है और कैसी सरकार यहां काम कर रही है."

केंद्र सरकार की उज्ज्वला योजना की आलोचना करते हुए अखिलेश यादव कहते हैं, "सरकार के पास अतिरिक्त सिलिंडर पड़े हुए थे. उन्होंने कॉर्पोरेट सेक्टर को लाभ पहुंचाना था. उन्हें फ़ायदा पहुंचाने के लिए ये सिलिंडर उन्होंने ग़रीबों को बांट दिए और उसका जमकर प्रचार किया जबकि हक़ीक़त ये है कि जिन ग़रीबों को सिलिंडर बांटा गया वो इतना महंगा सिलिंडर दोबारा भरा तक नहीं पा रहे हैं."

अखिलेश यादव ने दावा किया है, "राज्य की ज़्यादातर सीटों पर गठबंधन की जीत होगी और बीजेपी दस सीटों के भीतर सिमट कर रह जाएगी. पहले दो चरण में जिन सीटों पर चुनाव हुए हैं, वहां तो उसका खाता भी नहीं खुलेगा."

अखिलेश यादव कांग्रेस पर ज़्यादा हमलावर तो नहीं होते लेकिन गठबंधन में न शामिल होने के लिए कांग्रेस पर तंज़ ज़रूर कसते हैं. उनका साफ़ कहना है कि गठबंधन में शामिल न होने का फ़ैसला कांग्रेस का था.

उन्होंने कहा, "कांग्रेस पार्टी गठबंधन में नहीं आना चाहती थी क्योंकि उसे ज़रूरत भी नहीं थी. वास्तव में वो लोग बीजेपी को रोकना नहीं चाहते बल्कि अपने दल को यूपी में बचाना चाहते हैं इसलिए वो गठबंधन में नहीं आए. यूपी में अपनी पार्टी को ज़िंदा करना चाह रहे हैं, यही उनकी प्राथमिकता है."

क़ानून व्यवस्था पर यूपी सरकार को घेरते हुए अखिलेश यादव कहते हैं, "बीजेपी के सब लोग चौकीदार बन रहे हैं तो हमारे मुख्यमंत्री जी ठोंकीदार बने जा रहे हैं. यूपी देश का एकमात्र राज्य ऐसा होगा जहां जाति देखकर गोली मारी जा रही है, एनकाउंटर हो रहे हैं."

हालांकि बीजेपी के नेता पिछली समाजवादी पार्टी की सरकार को सबसे ज़्यादा उसकी कथित ख़राब क़ानून-व्यवस्था पर सवाल उठाते हैं. कुछ दिन पहले बीबीसी से बातचीत में राज्य के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने भी आरोप लगाया था कि पिछली सरकार अपराधियों को संरक्षण देती थी.

इस आरोप का जवाब अखिलेश यादव इस तरह देते हैं, "क़ानून-व्यवस्था का तो जो हाल है, आप ख़ुद ही देख रहे हैं. पुलिस वाले, प्रशासनिक अधिकारी और दूसरे अधिकारी पीट दिए जा रहे हैं. जनप्रतिनिधि आपस में ही एक-दूसरे को मार रहे हैं, जूतों की सलामी दे रहे हैं. मुख्यमंत्री जी के ऊपर कितनी गंभीर धाराएं हैं, उप मुख्यमंत्री जी के ऊपर कैसी धाराएं हैं, राष्ट्रीय अध्यक्ष को देख लीजिए. ये लोग हमें बताएंगे कि हम अपराधियों को प्रश्रय दे रहे हैं. ये तो बीजेपी ही है जो अपराध भी बढ़ा रही है और अपराधियों को भी बढ़ा रही है."

मैनपुरी की रैली में अखिलेश यादव ने कहा था कि देश की जनता प्रधानमंत्री बदलने के लिए इस बार मतदान कर रही है, लेकिन ये पूछे जाने पर कि गठबंधन की ओर से या फिर विपक्ष की ओर से कौन प्रधानमंत्री बनेगा, उनका कहना था, "नई सरकार बनेगी तो नए पीएम भी बन जाएंगे.

इस विषय पर अखिलेश आगे कहते हैं, "बीजेपी नया देश नहीं बना सकती, नई पार्टी, नया प्रधानमंत्री ही नया देश बना सकता है. समय समय पर जब भी नई सरकारें बनी हैं, प्रधानमंत्री अपने आप चुन लिया गया है. ये कोई मुद्दा नहीं है."

लेकिन लोकसभा में पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव तो नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनने की शुभकामना दे आए हैं, इस सवाल पर अखिलेश यादव का कहना था, "नेता जी ने सिर्फ़ एक परंपरा या कहिए कि औपचारिकता का पालन किया जो सदन में आख़िरी दिन होता है कि लोग एक-दूसरे को शुभकामना देते हैं जीत कर दोबारा आने के लिए. इससे ये नहीं समझना चाहिए कि वो मोदी जी के समर्थन में आ गए हैं. उन्हें पता है कि इस सरकार ने लोगों का कितना नुक़सान किया है और उससे देश कितना पीछे चला गया है."

केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कठघर में खड़ा करते हुए अखिलेश यादव कहते हैं, "प्रधानमंत्री नोटबंदी के बारे में कुछ नहीं बताना चाहते, जीएसटी की चर्चा नहीं करना चाहते, अपने पांच साल का ब्योरा देना नहीं चाहते, सिर्फ़ हिन्दू-मुस्लिम की चर्चा छेड़ेंगे, सेना की वीरता का श्रेय ख़ुद लेंगे ताकि लोग बाक़ी सब मुद्दे भूल जाएं."

अखिलेश यादव आज़मगढ़ सीट से लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं. साल 2014 में यहां से मुलायम सिंह ने चुनाव जीता था. इस बार भारतीय जनता पार्टी ने आज़मगढ़ सीट से कभी अखिलेश के क़रीबी रहे भोजपुरी फ़िल्मों के अभिनेता दिनेश लाल यादव निरहुआ को मैदान में उतारा है.

हालांकि कहा ये भी जा रहा है कि इससे बीजेपी ने एक तरह से अखिलेश यादव को 'वॉकओवर' देने की कोशिश की है, लेकिन अखिलेश यादव कहते हैं वहां तो बीजेपी अपने ही जाल में उलझ गई है क्योंकि उसके पास लड़ाने वाले उम्मीदवार ही नहीं थे इसलिए उन्हें फ़िल्मी दुनिया का रुख़ करना पड़ा.

Wednesday, April 17, 2019

परिवारों के टूटने बिखरने की वजह जानते हैं आप

हमारे देश में परिवार को सबसे ज़्यादा अहमियत दी जाती है. लोग अपने परिवार के लिए क्या नहीं कर गुज़रते. कभी परिवार की ख़ुशी के लिए अपनी निजी ख़ुशियों की क़ुर्बानी देते हैं. तो, कभी परिवार के साथ मिल-जुलकर रहने और परिवार को ख़ुश रखना ही अपनी ज़िंदगी का मक़सद बना लेते हैं.

दुनिया के बहुत से देशों में परिवार को तरज़ीह देने की संस्कृति है. वहीं कुछ ऐसे देश भी हैं जहां मां-बाप और बच्चे ग़ैरों की तरह ज़िंदगी गुज़ारते हैं. ख़ुदपरस्ती इनकी संस्कृति का हिस्सा है. बुज़ुर्ग मां-बाप को साथ रखना निजी ज़िंदगी में दख़लअंदाज़ी माना जाता है.

पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि भूमंडलीकरण की वजह से उन देशों में भी परिवार टूट रहे हैं, जहां अकेले रहने की रिवायत नहीं है. भारत की ही बात करें तो बड़ी संख्या में लोग रोज़गार की तलाश में गांवों से शहरों में या विदेशों में पलायन कर रहे हैं.

जिसकी वजह से ना चाहते हुए भी परिवारों में एक दूरी बन रही है. यही हालात अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हैं और आज रिसर्च का विषय बन गए हैं.

ब्रिटेन में स्टैंड अलोन नाम की एक संस्था है, जो परिवार से अलग हो चुके लोगों की मदद करती है. इस संस्था की रिसर्च रिपोर्ट बताती है कि ब्रिटेन में हर पांचवें परिवार में कोई एक सदस्य परिवार से अलग होता है.

इसी तरह अमरीका में क़रीब दो हज़ार मांओं और उनके बच्चों पर की गई रिसर्च बताती है कि दस फ़ीसद माएं अपने बच्चों से अलग हो चुकी हैं. अमरीका की ही एक और रिसर्च बताती है कि कुछ समुदायों में मां-बाप का बच्चों से अलग होना इतना ही आम है जितना कि तलाक़ होना.

स्टैंड अलोन संस्था की संस्थापक बेका ब्लैंड ख़ुद इसी तरह के तजुर्बे से गुज़री हैं. उनका अपने माता-पिता से कोई संपर्क नहीं है. इनका कहना है कि अब से पांच साल पहले तक ये बात इतनी चर्चा में नहीं थी.

लेकिन, जब से गूगल पर अकेलेपन से संबंधित शब्द को तलाशा जाने लगा ये शब्द गूगल ट्रेंड्स डेटा में सबसे ऊपर नज़र आने लगे. ख़ास तौर से कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर में तो ये शब्द गूगल पर सबसे ज़्यादा देखा गया.

बेका इसकी एक और वजह बताती हैं. उनका कहना है कि साल 2018 में ब्रिटेन के लोगों ने अपने राजकुमार प्रिंस हैरी की पत्नी मेगन मार्कल के बारे में गूगल पर सबसे ज़्यादा सर्च किया. मेगन मार्कल अमरीकियों की सर्च लिस्ट में दूसरे नंबर पर थीं.

असल में मेगन मार्कल अपने पिता से अलगाव की वजह से सुर्ख़ियों में थीं. उनके अपने पिता के साथ संबंध अच्छे नहीं रहे थे. कई और बड़े सेलेब्रिटी भी इसी तरह के अनुभव से गुज़र रहे हैं.

मिसाल के लिए साल 2018 में ही हॉलीवुड कलाकार सर एंथनी हॉपकिंस ने माना था कि पिछले बीस वर्षों में उन्होंने शायद ही कभी अपनी बेटी से बात की हो. ये चलन नामी शख़्सियतों के साथ-साथ आम लोगों की ज़िंदगी में भी आम बात बनता जा रहा है.

लगभग सभी देशों में आज बुज़ुर्गों के लिए ओल्ड एज हाउस बनने लगे हैं. उन्हें वहां हर तरह की सहूलतें मिल जाती हैं. जिन देशों में कल्याणकारी सुविधाएं बड़े पैमाने पर दी जाती हैं, वहां परिवार के नौजवान सदस्यों को अलग करने में कोई बुराई भी नज़र नहीं आती.

उन्हें लगता है कि हर उम्र के लोगों को हमउम्रों की ज़रूरत होती है. वो अपने बुज़ुर्गों के साथ रिश्ता मज़बूत बनाए रखने के लिए भी उनसे दूरी बना लेते हैं.ॉ

वहीं जिन देशों में सरकार की ओर से बेहतर सुविधाएं नहीं मिलतीं वहां बुज़ुर्ग, नौजवान और बच्चों के बीच मज़बूत रिश्ता और एक दूसरे से लगाव देखने को मिलता है. इसकी मिसाल हमें यूरोप के कुछ देशों में देखने को मिलती है.

इसके अलावा शिक्षा का उच्च स्तर भी अलगाव की एक वजह है. जिन लोगों के पास अच्छी शिक्षा है ज़ाहिर वो अच्छे पदों पर काम करते हैं. वो काम के सिलसिले में दूसरे देशों में जाते हैं.

इसकी वजह से माता-पिता से दूरी बन जाती है. साथ ही ऐसे परिवारों में आर्थिक रूप से लोग एक दूसरे पर निर्भर नहीं करते. लिहाज़ा उन्हें अलग होने में कोई हिचक भी महसूस नहीं होती.

ये भी देखा गया है कि जो अल्पसंख्यक समुदाय के लोग एक दूसरे से ज़्यादा क़रीब रहते हैं. उनके यहां बड़े परिवार भी एक छत के नीचे रहना पसंद करते हैं. ये भी हो सकता है कि असुरक्षा का भाव उन्हें ऐसा करने को कहता हो.

रिसर्च बताती हैं कि युगांडा के परिवारों में दूरी का चलन तेज़ी से जगह बना रहा है. कम्पाला यूनिवर्सिटी की रिसर्चर स्टीफ़न वनडेरा का कहना है कि रिवायती तौर पर युगांडा में बहुत बड़े-बड़े परिवार होते हैं. पूरा कुनबा एक साथ रहता है. लेकिन हाल के कुछ दशकों में इसमें बदलाव आया है.

पहले बड़े परिवारों के बहुत से सदस्य युगांडा में गृह युद्ध के शिकार या एड्स के मरीज़ों की मदद में सारा जीवन समर्पित कर देते थे.

पर, अब हालात बदल गए हैं. अब युगांडा में 50 से ऊपर की उम्र के क़रीब 9 फ़ीसद लोगों ने अकेले जीवन गुज़ारना शुरू कर दिया है. शायद इसकी वजह शहरीकरण है.

शहरों में बड़े परिवार को साथ रखना आसान नहीं है. इसलिए भी बुज़ुर्गों के साथ अलगाव की स्थिति पैदा हो रही है. और गुज़रते दौर के साथ ये स्थिति और मज़बूत होगी.

लेकिन कुछ रिसर्चर मानते हैं कि किसी भी समाज में सांस्कृतिक मूल्य बहुत मज़बूत होते हैं. वो आसानी से ख़त्म नहीं होते. लिहाज़ा जिन समाज में परिवार के साथ रहने का चलन है वो आगे भी रहेगा. लेकिन रिसर्चर वनडेरा को यक़ीन है कि आने वाले 20 साल में स्थिति पूरी तरह बदल जाएगी.

Wednesday, April 10, 2019

«Bald schläft ein Euro-Hooligan in meiner Wohnung»

Schreiner Franz Weber zeigt auf seine ehemalige Wohnung. Nach 45 Jahren wurde er rausgeschmissen. Und die Vermieter machen Reibach mit Euro-08-Fans.
Die Anzeige der Firma Swiss Immo Trust AG richtet sich an Euro-08-Fans. «Funktionell eingerichtete Wohnung mit acht Schlafplätzen. Ideal für Gruppen.» Adresse: Talstrasse 43 in Oberwil BL.

Hier wohnte der pensionierte Schreiner Franz Weber (69) – fast ein halbes Jahrhundert lang. «Jetzt haben sie mich rausgeschmissen», sagt er konsterniert. «Ich kann es immer noch nicht glauben. Es geht nur ums Geld, unsere Schicksale zählen nichts. Bald schlafen Euro-Hooligans in meiner Wohnung.»

28 Mietparteien erhielten an der Talstrasse 43, 45 sowie Langegasse 40 die Kündigung. Sie müssen ihr vertrautes Umfeld verlassen – die Siedlung wird totalsaniert.

Drei Monate hatte Franz Weber Zeit, um eine neue Wohnung zu suchen. Er wurde ein paar 100 Meter weiter fündig. Zu einem höheren Preis, aber immerhin in derselben Gegend. «Wir konnten uns nicht wehren. Ich fühle mich immer noch machtlos und ausgenutzt.»

Weniger Glück hatte Edeltraud Künzli (65). Die krebskranke Rentnerin konnte kaum gehen zum Zeitpunkt, als die Kündigung kam. Von Operationen geschwächt brauchte sie dreimal am Tag die Unterstützung der Spitex.

«Ich wusste zuerst nicht, wie ich das alles schaffen sollte. Ich war nahe daran aufzugeben», erzählt Edeltraud Künzli. Zum Glück hat sie noch ihre Tochter. Tatjana nahm spontan eine Woche Ferien.

Jetzt wohnt die Rentnerin wieder in Therwil, von wo sie vor 24 Jahren nach Oberwil gezogen ist. Dass jetzt Euro-08-Fans in das Haus ziehen sollen, findet die zweifache Mutter und vierfache Grossmutter schrecklich. «Ich bin so wütend. Die Besitzer sind einfach skrupellose Menschen.»

Im März hat die Swiss Immo Trust AG das Baugesuch eingereicht. Bewilligt ist es noch nicht.

Die Hausbesitzer haben die Mieter aber trotzdem schon rausbugsiert. Gerade rechtzeitig, um während der Euro 08 so richtig Kasse zu machen. Eine Altbauwohnung, die bis anhin um die 900 Franken kostete, spielt 415 Franken ein – pro Tag. Das ergibt eine stolzen Monatsmiete von 12450 Franken. Einzige Kosten: Die Vermieter schleppen acht Betten in jede Fan-Wohnung.

Die Swiss Immo Trust AG erklärt schriftlich, die Vermietung der Wohnungen an Euro-08-Fans habe nichts mit der Tatsache zu tun, dass die Wohnungen umfassend saniert werden müssen.

Ausserdem: «Der Bettpreis (inkl. Frühstück) in diesen Ferienwohnungen beträgt pro Person und Nacht 75 Franken. Bei der Festsetzung der Höhe des Preises haben wir uns an den Preisen von Jugendherbergen orientiert.»

Dass die Wohnungen als Tages-Zimmer während der Euro angeboten werden, stört auch den Mieterverband. «Es ist schlicht eine Frechheit», sagt Urs Thrier, Geschäftsführer der Sektion Baselland und Dorneck-Thierstein SO.

Hier werde nicht nur günstiger Wohnraum vernichtet. «Die Wohnungen auch noch für die Euro zu vermieten, ist ein Affront gegenüber den ehemaligen Mietern», sagt Thrier. Die Zwischennutzung sei aber legal. Man könne keine Rechtsmittel dagegen ergreifen.
Oberwil ist von Stadtzentrum Basel nur fünf Kilometer entfernt. Entsprechend gross ist die Nachfrage nach Wohnungen.

Soeben die Kündigung erhalten haben auch 60 Mietparteien der Überbauung «Im Wasen» in Oberwil. 6 Häuser werden abgerissen. Auch hier sind fast ausschliesslich Mieter mit kleinen Einkommen betroffen. Die Wohnblocks aus den 40er-Jahren werden durch Eigentumswohnungen ersetzt.

Das Geschäft mit der Euro 08 hat man «Im Wasen» allerdings verpasst: Die meisten Mieter fechten die Kündigung vor der Schlichtungsstelle Liestal an.

Tuesday, April 2, 2019

जब बीमारियों से बचने के लिए होगा पेंट, वाई-फ़ाई का इस्तेमाल

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, कई आम बीमारियां हर साल एक अरब से ज़्यादा लोगों को प्रभावित करती हैं. इनसे निपटने में विकासशील देशों के अरबों रुपए ख़र्च हो जाते हैं.

ग़ुरबत में रहने वाले लोग अक्सर बुनियादी सुविधाओं से महरूम होते हैं. उनकी बस्तियों में साफ़-सफ़ाई की कमी होती है. आस-पास जानवर रहने की वजह से उन्हें आए दिन कई बीमारियां हो जाती हैं. यही वजह है कि टीबी और ख़सरा जैसी बीमारियां जो एक सदी पहले ही ख़त्म मान ली गई थीं, वो वापस आ गई हैं.

इसके अलावा दूसरी संक्रामक बीमारियां जैसे खांसी-ज़ुकाम और नोरोवायरस की वजह से हर साल हज़ारों लोग मर जाते हैं. इन ज़िंदगियों को आसानी से बचाया जा सकता है.

मेडिकल साइंस की दुनिया में कई ऐसी नई तकनीक आ गई हैं, जिनसे ये मुमकिन है. नई तकनीक हमें संक्रमण रोकने, बीमारियां फैलने से रोकने और जान बचाने वाली दवाएं मुहैया कराने में मदद कर रही हैं.

ऐसे पेंट आ गए हैं, जो कीटाणुओं को रोकते हैं. टीके अब सुई के बजाय पाउडर की तरह छिड़ककर लगाए जा सकते हैं. साथ ही अब ट्रांसप्लांट के लिए ज़रूरी अंगों को ड्रोन की मदद से पहुंचाया जा रहा है.

यानी इन नए नुस्ख़ों की मदद से हम बहुत सी बेशक़ीमती ज़िंदगियां बचा पा रहे हैं. आगे चलकर हमें नई तकनीक की वजह से बीमारियों के पेंच-ओ-ख़म पता चल सकेंगे. इसका फ़ायदा बीमारियों की मज़बूती से रोकथाम में होगा.

कई दवाएं केवल इंजेक्शन से ही दी जा सकती हैं. इसके लिए लगातार बदन में सुईयां चुभोना किसी को पसंद नहीं आता. मरीज़ इससे घबराते हैं. स्वास्थ्य सेवाओं में अक्सर साफ़-सुथरे इंजेक्शन की कमी से, बीमारियां भी फैलती हैं.

अब अमरीका के कोच इंस्टीट्यूट फॉर इंटीग्रेटिव कैंसर रिसर्च और हार्वर्ड के ब्रिघम ऐंड वुमन हॉस्पिटल ने मिलकर ऐसी गोली तैयार की है, जिससे इंसुलिन की ख़ुराक बिना इंजेक्शन के ली जा सकेगी.

ये गोली खाने के बाद पेट के भीतर जाकर सीधे आंतों की दीवारों पर इंसुलिन का छिड़काव करेगी. मटर के आकार की इस गोली से टाइप-1 डायबिटीज़ के मरीज़ों को बहुत फ़ायदा होने की उम्मीद है.

इस गोली को विकसित करने वालों का दावा है कि उन्हें इसे बनाने की प्रेरणा लेपर्ड कछुए से मिली. ये कछुआ विपरीत हालात में ख़ुद में तेज़ी से बदलाव ले आता है. इसी तरह ये गोली भी ख़ुद को पेट में ऐसी जगह पहुंचा लेगी, जो सीधे आंत की दीवार पर दवा का छिड़काव करेगी.

अस्पताल जाने वाले दस फ़ीसद लोग, वहां पर नई बीमारियों के शिकार हो जाते हैं. इसकी वजह अस्पताल में इस्तेमाल होने वाले औज़ार, वहां का फ़र्श और दीवारें होती हैं. इसकी वजह से अकेले अमरीका में ही हर साल एक लाख लोगों की मौत हो जाती है.

दुनिया भर में क़रीब 7 लाख लोग अस्पताल जाने पर नई बीमारियों की वजह से मर जाते हैं. अस्पताल जाने पर लोग टीबी, एचआईवी या मलेरिया जैसी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि एंटीबायोटिक की मदद से हम लोगों की रोगों से लड़ने की क्षमता, लगातार कम हो रही है. ये मेडिकल इमरजेंसी है, जिससे मानवता को निपटना है.

अमरीकी सरकार के खाद्य और दवा मंत्रालय ने कई पेंट कंपनियों के साथ मिलकर एक कीटाणु प्रतिरोधी पेंट विकसित किया है. इसे मेडिकल के औज़ारों और दूसरे सामान पर पेंट किया जा सकता है, ताकि वो कीटाणुओं के वाहक न बनें.

इसके लिए एक केमिकल को पेंट या स्याही तैयार करने के दौरान मिला दिया जाता है. फिर, इस पेंट को अस्पताल में रंग-रोगन में इस्तेमाल किया जाता है. सूखने के बाद ये कीटाणुओं से लड़ने में सहायक होता है. इसे लगाने के बाद फ़ंगस, जीवाणु और काई नहीं लगती. बायोकोट नाम की कंपनी ये एंटी-कीटाणु पेंट तैयार कर रही है.

मज़े की बात ये है कि हम कई ऐसे जेल, एंटीसेप्टिक और हैंड सैनिटाइज़र ये सोचकर इस्तेमाल करते हैं कि बीमारियों से बचेंगे. पर, यही सब बीमारियों को बढ़ावा देते हैं. क्योंकि ये ख़राब के साथ-साथ अच्छे बैक्टीरिया को भी मार देते हैं.

किसी भी दवा की ओवरडोज़ नुक़सान करती है. इसी तरह एंटीबैक्टीरियल केमिकल का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल भी फ़ायदे के बजाय नुक़सान को ही दावत देता है.

फ़र्ज़ीवाड़े से दुनिया को हर साल 3 ख़रब डॉलर का नुक़सान होता है. कारोबारी दुनिया में भ्रष्टाचार से लेकर फ़र्ज़ी इलेक्ट्रॉनिक सामान तक, उद्योग-धंधों में ख़ूब मिलावट, फ़र्ज़ीवाड़ा और नक़ली सामानों की ख़रीद-फ़रोख़्त चलती है.

开先例 朝鲜叛逃外交官当选韩国国会议员

太勇浩曾经是朝鲜驻英国副大使, 4月中旬, 色情性&肛交集合 全球多个疫苗团队 色情性&肛交集合 宣布取得进展的同时, 色情性&肛交集合 中国宣布第一波疫情已经得到控制, 色情性&肛交集合 中国在全球的新冠研究 色情性&肛交集合 的临床试验立项占比从 色情性&肛交集合 三分之二...